सामान्य परिचय:
नाम: डॉ. खूबचंद बघेल (Dr. Khubchand Baghel)
जन्म: 19 जुलाई 1900
स्थान: ग्राम पथरी, रायपुर।
पिता: जुड़ावन प्रसाद
माता: केकती बाई
पत्नी: राजकुँवर
निधन: 22 फरवरी 1969
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महापुरुष – डॉ. खूबचंद बघेल सम्मान ( गुंडाधूर सम्मान )
किसी भी कार्य में योगदान कितना भी अलग क्यों न हो लेकिन प्रयोजन की प्रवित्रता उसे महान बना देती है। पिछली दो शताब्दियों से बस्तर के आदिवासियों की कविताओं में एक ऐसे गुमनाम राष्ट्रभक्त की चर्चा रही है जिसने जीते जी कभी अंगेजों की दासता स्वीकार नहीं की। बस्तर का यह महानायक गूण्डाधर अकेले ही अंगे्रजों से लड़ता रहा।
धुरवा जाति के गूंडाधूर बस्तर में आदिवासी विद्रोह के प्रणेता बने 1910 में हुआ बस्तर का ये आदिवासी विद्रोह इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है। अंग्रेजों के आतंक से त्रस्त बस्तर की जनता के बीच गुण्डाधूर ने घूम-घूम कर विद्रोह की ज्वाला भड़कायी 2 फरवरी, 1910 को पूसपाल बाजार की लूट से विद्रोह शुरू हुआ। गुंडाधूर अंग्रेजों को बस्तर से भगाकर यहां की जनता को सुख शांति प्रदान करना चाहते थे। उन्नीसवीं सदी के अंत में बस्तर में आये सामंत, सेठ, साहूकारों, व्यापारियों ने यहां के आदिवासियों को शोषण किया। अंग्रेजों के आने के बाद तो स्थिति और भी खराब हो गयी थी। महसूल की रकम और किसानों पर लगान इतना ज्यादा था कि वे त्रस्त हो उठे जिसकी परिणिति इस आदिवासी विद्रोह के रूप में हुई।
गुंडाधूर ने इस विद्रोह का कुशल संचालन मूरत सिंह बख्शी, बाला प्रसाद नाजिर, वीर सिंह बंदान और लाल कालन्द्री सिंह के सहयोग से किया। विद्रोह का संदेश गांव गांव तक पहुंचाने के लिये लाल मिर्ची, मिट्टी, धनुष बाण और आम की टहनियों का प्रयोग किया। गुंडाधूर ने इस विद्रोह में सबसे पहले अंगे्रजों के संचार तंत्र को नष्ट किया इस विद्रोह को लेकर बस्तर की सभी आदिवासी जातियों में अभूतपूर्व उत्साह था। उन सभी का लक्ष्य एक ही था बस्तर बस्तरवासियां का है।
गुंडाधूर ने ब्रिटिश सत्ता और अधिकारियों से उनके आतंक का इस तरह से बदला लिया कि बस्तर मे उनका नाम एक लंबे अर्से तक भय और आतंक का पर्याय बना रहा। इस विद्रोह के दमन के लिए रायपुर से मिस्टर गेयर और डीब्रेट को बस्तर जाना पड़ा। जहां कांकेर के राजा ने उनका सहयोग किया। अंग्रेजों ने जगह जगह गांव जलाये, लोगों को फांसी पर लटकाया, महिलाओं और बच्चों पर अत्याचार किये। मई 1910 तक अंग्रेजों ने विद्रोह पूर्णतः दबा दिया। सैकड़ों आदिवासी शहीद हुये।
गुंडाधूर ने एक बार फिर अपनी सेना संगठित की। तीर कमान, कुल्हाड़ी, टंगिया से सुसज्जित होकर जगदलपुर विजय अभियान पर निकले। यहां अलनार गांव में उनका अंग्रेजों से अंतिम मुकाबला हुआ। सोनू मांझी नामक व्यक्ति ने आदिवासियों को मदिरा पिलाकर गूंडाधूर के साथ धोखा किया। सूचना मिलते ही अंग्रेजों की सेना ने गूंडाधूर को चारो तरफ से घेर लिया। भारी संख्या में विद्रोही मारे गये लेकिन गूंडाधूर बच निकले। अंगे्रजी सेना ने गूंडाधूर को पकड़ने के लिए बस्तर का चप्पा चप्पा छाना, हर संभव कोशिश की लेकिन वे अंत तक पकड़े नहीं गये। निःसंदेह वे बस्तर के इतिहास पुरूष थे जिनकी प्रेरणा और किस्से आज भी वहां के लोकगीतों के रूप में गाये जाते है। बस्तर के घने वनों में जनजागृति का श्रेय निःसंदेह गुंडाधूर को जाता है। ऐसे वीर, जनजागृति के प्रणेता गुंडाधूर सदैव स्मरणीय रहेंगे।
भारत की आजादी के आंदोलन में सक्रीय योगदान देकर एव तत्कालीन भारत में चल रहे राजनैतिक – समाजिक परिवर्तन तथा आर्थिक मुक्ति आंदोलन में हिस्सा लेकर जिन्होने इतिहास रचा है, उनमें एक सशक्त हस्ताक्षर डाॅ. खूबचंद बघेल जी का भी है। छत्तीसगढ़ राज्य जो अस्तित्व में नवम्बर 2000 से आया है, उसके प्रथम स्वप्न दृष्टा, डाॅ.खूबचंद बघेल जी ही थे। आज भले ही उन्हें इसकी मान्यता देने में उच्च वर्ण एवं वर्ग के लोगों को हिचकिचाहट होती है, लेकिन यही ऐतिहासिक सत्य/तथ्य है। ब्राम्हणवादी जाति व्यवस्था को विछिन्न कर समस्त मानव जाति को एक जाति के रूप में देखने की चाहत रखने वाले डाॅ. बघेल के व्यक्तित्व में छत्तीसगढ़ की खुशबू रची – बसी थी। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के लिये त्याग और बलिदान करने वालों में डाॅ. साहब का नाम अग्रिम पंक्ति पर है।
छत्तीसगढ़ के संस्कृति कला एवं रीति रिवाजों की महक, उनमें रची बसी थी, जो उनके द्वारा लिखित ”जनरैल सिंग” नामक नाटक के इस कविता में झलकती है:-
बासी के गुण कहुं कहां तक, इसे ना टालो हांसी में। गजब बिटामिन भरे हुये है, छत्तीसगढ़ के बासी में ।। नादानी से फूल उठा मैं, ओछो की शाबासी में, फसल उन्हारी बोई मैंने, असमय हाय मटासी में। अंतिम बासी को सांधा, निज यौवन पूरन मासी में, बुद्ध – कबीर मिले मुझको, बस छत्तीसगढ़ के बासी में। बासी के गुण कहुं कहां तक ……………………… विद्वत जन को हरि दर्शन मिले, जो राजाज्ञा की फांसी में, राजनीति भर देती है यह, बुढ़े में सन्यासी में, विदुषी भी प्रख्यात यहां थी, जो लक्ष्मी थी झांसी में, स्वर्गीय नेता की लंबी मुंछे भी बढ़ी हुई थी बासी में ।। गजब विटामिन भरे हुए हे ………………
डाॅ. खूबचंद बघेल का जन्म छत्तीसगढ़ – Dr. Khubchand Baghel was born in Chhattisgarh
डाॅ. खूबचंद बघेल का जन्म छत्तीसगढ़ (तत्कालीन सी. पी. एवं बरार) के रायपुर, जिले के ग्राम पथरी में 19 जुलाई सन 1900 ईस्वी में हुआ था। ग्राम पथरी रायपुर – बिलासपुर (मुम्बई- हावड़ा रेल लाईन व्हाया नागपुर) रेल मार्ग पर छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 15 किलोमीटर दूर मांढर (द.पु.रे.) सीमेंट फैक्टरी से 10 कि.मी. पूर्व में स्थित है। पिता का नाम जुड़ावन प्रसाद एवं माता का नाम केतकी बाई था। जुड़ावन प्रसाद पथरी के माल गुजार परिवार से थे। ब्राम्हणवादी जाति व्यवस्था के तहत कुर्मी जाति के होन के नाते खेती किसानी ही उनका पुश्तैनी पेशा था । पिता की मुत्यु डाॅ. साहब के बाल्यकाल में ही हो गई थी। प्राथमिक शिक्षा डाॅ. साहब ने अपने चाचा नकुल एवं सादेव प्रसाद बघेल के कुशल निर्देशन में गांव के प्राथमिक शाला में पायी । प्राथमिक शिक्षा समाप्त करने के बाद गवर्नमेंट हाई स्कुल, रायपुर में भर्ती हो गये। वे एक मेघावी छात्र में, उन्हें छात्रवृत्ति मिलती थी। छात्र जीवन से ही देश सेवा के कार्य में जुड़े रहे। देशभक्ति एवं राष्ट्रीयता की भावनाने हृदय मे जगह बना लिया था।
डाॅ. खूबचंद बघेल की शिक्षा:
डाॅ. साहब का विवाह लगभग दस वर्ष की उम्र में अपने से तीन वर्ष छोटी राजकुंवर से, प्राथमिक शिक्षा प्राप्ति के दौरान ही हो गयी थी। उनकी पत्नी राजकुंवर से उनकी तीन पुत्रियों क्रमशः पार्वती, राधा एवं सरस्वती का जन्म हुआ। राजकुवंर बाई निरक्षर थी। कलान्तर में डाॅ. भारत भूषण बघेल को पुत्र के अभाव में डाॅ. साहब ने गोद लिया।
सन् 1920 में जब नागपुर के राबर्टसन मेडिकल कालेज में डाॅ. साहब शिक्षा ग्रहण कर रहे थे, तब नागपुर में विजय राघवाचार्य की अध्यक्षता में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में मेडिकल कोर के सदस्य के रूप में सम्मिलित हुये थे। सन् 1921-22 के ‘असहयोग आंदोलन‘ से प्रभावित होकर डाक्टरी की पढ़ाई छोड़ आंदोलन का प्रचार-प्रसार, रायपुर जिले के, गांव में धूम-धूमकर करने लगे। विशेषकर डाक्टर साहब ने छात्रों को संगठित कर, उसमें राष्ट्रीय चेतना के बीज बोने का बीड़ा उठाया। डाक्टरी की पढाई अधुरी छोड़ नागपुर से लौट आने एवं स्वतंत्रता के राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रीयता को देख, माता एवं परिवारजनों को बड़ी निराशा हुई थी। लेकिन सबके समझााने के बाद, पुनः नागपुर एल. एम. पी. की डिग्री हासिल करने पहंुचे, तभी झंड़ा सत्याग्रह प्रारंभ हो गया। छत्तीसगढ़ से सैकड़ों की संख्या में स्वम् सेवकों ने ‘झंडा सत्याग्रह‘ में डाॅ. साहब के नेतृत्व में भाग लिया।
स्न् 1923 में एल.एम.पी. (लजिसलेटिव मेडीकल प्रेक्टिशनर) की परीक्षा पास कर ली, कालांतर में एल.एम.पी. को एम.बी.बी.एस. में परिवर्तित किया गया। एल.एम.पी. की परीक्षा पास कर स्वास्थ्य विभाग में नौकरी कर ली। डाॅ. साहब की प्रथम पोस्टिंग रायगढ़ शासकीय अस्पताल में हुई। 1931 में ‘जंगल सत्याग्रह‘ प्रारंभ हो गया, इसमें शामिल होने डाॅ. साहब ने शासकीय सेवा से त्यागपत्र दे दिया और संपूर्ण भारत में चल रहे स्वतंत्रता प्राप्ति के आंदोलन के प्रति पूर्णतया समर्पित हो गये। दलितों एवं शोषितों के समाजिक अपमान, छूआछुत, भेदभाव के विरूद्ध संगठन की शुरूआत की एवं 1932 में तत्कालीन ”मध्यभारत एवं बरार प्रांत” (सी. पी. एंड बरार प्रोविन्स) के ‘हरिजन सेवक संध‘ ईकाई के मंत्री नियुक्त किय गये। मिनीमाता एवं छत्तीसगढ़ के अन्य दलित नेताओं के साथ मिलकर शैक्षणिक, सामाजिक, राजनैतिक स्तर में सुधार के लिये काम किये।
सन् 1932 के ‘विदेशी वस्त्र बहिष्कार आंदोलन‘ में पुनः जेल गये । उनके साथज्ञ उनके 18 सहयोगियों मे एक उनकी माता श्रीमति केतकी बाई भी थी। सन् 1932 के बाद ”रायपुर जिला कांग्रेस कमेटी” के साथ, डिस्ट्रिक्ट कौसिल रायपुर में फिजिकल इंस्ट्रक्टर के पद पर कार्य किया।
डाॅ. खूबचंद बघेल की समाजिक कार्य
ऊॅंच-नीच, छूआछूत के चलते छत्तीसगढ़ के गांवों में नाई, सतनामी समाज के भइयों का बाल नही काटते थे। उनके मुहल्ले की सफाई भी नहीं होती थी। ग्राम- चन्दखुरी, मंदिर हसौद, ब्लाक – आरंग जिला रायपुर के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, जो आगे चलकर विधायक भी चुने गये, जिन्हें दुकान का धंधा करने के कारण लोग सेठ कहकर पुकारते थे – ‘स्व. अनंत राम बर्छिहा‘ ने सतनामी समाज के लोगों का बाल काटने, दाढ़ी बनाने (सांवर बनाने) एवं उनके मुहल्ले की सफाई करने का काम किया। इससे उनका अपना कुर्मी समाज नाराज हो गया, उन्हें कूर्मि जाति से बहिष्कृत कर दिया । डाॅ. साहब ने इस कार्य के महत्व बताने एवं नाराज समाज को अपने गलती का एहसास करवाने के लिये ”ऊंच-नीच” नामक नाटक लिखकर उसका सफल मंचन करवाया । इस नाटक का असर यह हुआ, बर्छिहा जी का सामाजिक बहिष्कार रद्द हुआ एवं उनके कार्य की सर्वत्र प्रशंसा हुई।
भारतीय मानव समाज के वर्ण से वर्ग, वर्ग से जाति, जाति से उपजाति एवं उपजाति से गोत्र के टूटन केा उन्होने अंतरआत्मा तक महसूस किया। और इस सड़ी गली जाति प्रथा को तोड़ने का संकल्प लें, सर्वप्रथम उपजाति बंधन को तोड़ा। 1936 में उपजाति बंधन तोड़कर स्वम् मनवा कुर्मी उपजाति के होने के बावजूद, दिल्ली-वार कुर्मी मा, रामचन्द्र देशमुख (संस्थापक – चंदैनी गोंदा) ग्राम – बघेरा जि. दुर्ग वाले के साथ अपनी द्वितीय पुत्री राधाबाई का विवाह सम्पन्न किया। उपजाति बंधन तोड़ने पर उनके स्वम के मनवा कुर्मी समाज ने उन्हें मनवा कुर्मी उपजाति से बहिष्कृत किया, उन्हें सजा मिली। अपने मनवा कुर्मी उपजाति से बहिष्कृत होने पर उन्होने कहा, ‘आप भल ही मुझे छोड़ दे, लेकिन मैं आप लोगों को नहीं छोड़ सकता‘ , इस अवसर पर उपनी बात उन्होने कवि अतीश की एक कविता के माध्यम से कही जो निम्नलिखित है –
ये हो बिटप (वट -वृक्ष), हम पुहुप (फुल) तिहारो है । राखिहौ तो रहेंगे, शोभा रावरी (तुम्हारी) ही बढ़ायेंगे ।। बिलग किये ते, बिलग ना माने कछु, चढ़ेगे, सुर सिर न चढ़ेगें जाय सुकव अतीश हाट बाटन बिकायेंगे । देश हुॅं रहेंगे, परदेश हूॅं रहेंगे जाय, जऊ देश हूॅ रहे, पर रउरे (आपके ही) कहायेंगे ।
डाॅ. बघेल ने अपने लेख में उपजातीय शादियों के संबंध में लिखा है, कि ”जो अन्तर उपजातीय विवाह को टेढ़ी नजर से देखते हैं, यह तो संजीवनी बुटी को ‘चरौटा- भाजी‘ समझने के समान मूर्खता है। जो हमें संकीर्णता से विशालता की ओर, जो हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले जावे, ऐसे कदम का विरोध करने वाले लोगों के लिय हृदय में एक भारी वेदना पैदा होती है।”
उपजाति शादी की मान्यता के लिये, वर्षों तक संघर्ष कर, अंततः विजयी हुये। इसी का परिणाम है, कि आज छत्तीसगढ़ के कूर्मियों में अन्तर उपजातिय शादियों को मान्यता प्राप्त है। कुर्मियों के अखिल भारतीय स्वरूप को उन्होने सामने लाया, पटना (बिहार) के राजेश्वर पटेल (जो सांसद भी रहे एवं 1953 ‘प्रथम राष्ट्रीय अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग‘ जिसके अध्यक्ष काका कालेलकर को नियुक्त किया गया था, के पटेल जी सदस्य रहे।) के साथ अपनी तृतीय पुत्री सरस्वती का विवाह किया । ”अखिल भारतीय कूर्मि क्षत्रिय महासभा” के 24 वें अधिवेशन जो कि दिनांक 7,8 एवं 9 मई 1948 यू.पी., कानपुर के जनपद हारामऊ ग्राम पुखराया में एवं 28 वां अधिवेशन जो महाराष्ट्र, नागपुर में दिनांक 10,11 एवं 12 दिसम्बर 1966 को आयोजित था, कि अध्यक्षता की।
कानपुर के अध्यक्षीय भाषण का यह अंश उनके समस्त मानव जाति को एकजुट करने की इच्छा को प्रदर्शित करता है ”उपजातियों का भेदभाव मिटाना इस युग का छोटे से छोटा, हल्के से हल्का कदम होगा। सही मायने में तो हमको और आपको समस्त मानव जाति के अंदर रहने वाली ब्राम्हणवादी जाति-पाति की सड़ी एवं खड़ी व्यवस्था को ही पहले दूर करना होगा। वर्ण व्यवस्था रूपी शरीर में जाति व्यवस्था एक कोढ़ है, जो सारे भारतीय मानव समाज को नष्ट कर रहा है।”
सामाजिक परिवर्तन की दिशा में उनके उपर्युक्त उद्गार आज भी प्रासंगिक है। क्योंकि शोषित एवं पिछड़ा अपने हित की जब बात करता है, तो उच्च वर्ण के लोग उन्हें जातिवादी करार देते है। क्या अपने-अपने परिवार के, जाति के, वर्ग के एवं वर्ण के हित में कार्य करना जातिवाद है? यदि ब्राम्हणवादियों का आरोप सहीं है, तो वे स्वम, वहीं कार्य क्यों करते हैं ?
जाति प्रथा के आधार पर छत्तीसगढ़ में एक रिवाज प्रचलित थी, जिसके तहत, किसी बारात में उपस्थिति भिन्न- भिन्न जाति के लोगों को अलग-अलग पंक्ति में बैठाकर भोजन करवाया जाता था। अर्थात व्यक्ति के जाति के, आधार पर उसकी पंक्ति तय होती थी। कूर्मि व्यक्ति तेली के साथ एक ‘पंक्ति‘ में बैठक्र भोजन ग्रहण नहीं कर सकता था। यह व्यवस्था डाॅ. साहब को भेदभाव पूर्ण लगी और उन्होने इसे तोड़ने के लिये ‘पंक्ति तोड़ो‘ आंदोलन चलाया, अर्थात कोई व्यक्ति किसी के भी साथ एक पंक्ति में बैठकर भोजन कर सकता है। जाति के आधार पर पंक्ति नहीं होनी चाहिये । पंक्ति तोड़ो आंदोलन में वो सफल रहे।
सन् 1952 में होली त्यौहार के समय कराये जाने वाले ‘किसबिन नाच‘ बंद कराने के लिये ग्राम महुदा (तरपोंगी) ब्लाक -तिल्दा, जि. रायपुर में सत्याग्रह किया पूर्णतया सफल रहे। किसबा जाति जिनका पुश्तैनी धंधा ही अपनी बहन- बेटियों को तवायफ की तरह नाच-गाने में लगाने का था, उनमें यह चलन बंद करने के लिये आपने ‘भारत वंशी, जातिय सम्मेलन‘, मुंगेली, जिला- बिलासपुर में समाज सुधार की दृष्टि से किया। इस सम्मेलन का व्यापक प्रभाव उक्त जाति पर पड़ा और किसबा जातीय जीवन धारा में परिवर्तन आया । समाजिक परिवर्तन के आंदोलन में उनके आदर्श महात्मा ज्योतिबा फुले थे। डाॅ. साहब बताते थे कि महात्मा गांधी, फुले को असली महात्मा कहते थे। शैक्षणिक एवं सामाजिक रूप से पिछड़ों के आर्थिक मुक्ति के लिये सिलयारी में ‘ग्राम उधोग संघ‘ का निर्माण, तेल पेराई उधोग, घानी निर्माण, हाथ करधा, धान कुटाई कार्य और साबुन साजी के गृह उधोग का प्रशिक्षण और उत्पादन तथा मार्केटिंग कार्य का संचालन आपने सहकारिता के माध्यम से किया।
सन् 1958-59 में सिलयारी में ‘जनता हाईस्कुल‘ की स्थापना की। जो आज उनके नाम पर शासकीय उच्चतर माध्यमिक विधालय है। यह कदम उन्होने आसपास के गांवों के शैक्षणिक स्तर को ऊंचा उठाने के लिये किया। इस स्कुल को खोलने का दूसरा कारण था, प्रदेश शासन द्वारा धरसिवां विधानसभा क्षेत्र की उपेक्षा। चूंकि 1952 एवं 57 में डा. बघेल, यहां से विरोधी दल के प्रत्याशी की हैसियत से एम.एल.ए. बने थे, कांगे्रस के प्रत्याशी को हराकर।
डाॅ. खूबचंद बघेल के राजनैतिक कार्य
डाॅ. साहब सन् 1931 तक शासकीय अस्पताल में डाक्टर रहे, शासकीय सेवा से त्यागपत्र दे पूर तरह से स्वाधीनता आंदोलन में कुद गये। 1931 मे ”जंगल सत्याग्रह” में पुनः जेल गये, कांग्रेस के पूर्णकालिक सदस्य बन, स्वतंत्रता संग्राम के लिये, महात्मा गांधी द्वारा चलाये जाने वाले आंदोलन में शामिल हुये। 1932 में रायपुर जिला कांग्रेस कमेटी के डिस्ट्रिक्ट कौंसिल रायपुर में फिजिकल इन्सट्रक्टर के पदपर नियुक्ति किये गये। ”भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस” द्वारा चलाये जा रहे स्वाधीनता संग्राम में समय-समय पर आयोजित विभिन्न आंदोनल में सक्रीयता से भाग लिया। 1932 में ”द्वितीय सविनय अवज्ञा आंदोलन” में शामिल हुये। सन् 1935 के अधिनियम श्ज्ीम ळवअजण् व िप्दकपं ।बजश् के आधार पर भारत में संघात्मक प्रणाली स्थापित की गई, जिसके फलस्वरूप 1937 में निर्वाचन हुये कांग्रेस को अभुतपूर्ण सफलता मिली। डाॅ. साहब ने कांग्रेस कार्यकर्ता के रूप में सक्रियता से इन चुनावें में हिस्सा लिया। ग्यारह प्रांतों में से 8 प्रांतों में कांग्रेस को बहुमत मिला, जिसमें ”सी.पी.एवं बरार” भी शामिल था। द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटिश सरकार को सहयोग कर, पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्ति का प्रस्ताव कांग्रेस द्वारा 1940 में पास किया गया। परंतु ब्रिटिश सरकार ने युद्ध के बाद 1942 में भारत को आजाद करने से इंकार कर दिया। जिसके फलस्वरूप गांधी जाी ने 1941 में सत्याग्रह आंदोलन शुरू किया, ”भारत छोड़ो” ष्फनपज प्दकपं डवअमउमदजष् में भाग लिया। ”करो या मरो आंदोलन” ष्क्व वत क्पमष् में सक्रीयता से भाग लिया और जेल गये। 8 अगस्त 1942 में शुरू ”भारत छोड़ो आंदोलन” में अपने साथियों सहित 21 अगस्त 1942 को जेल गये एवं ढाई वर्षों तक जेल में रहे।
जून 1946 में प्रांतीय व्यवस्थापिका सभा के निर्वाचन हुये सी.पी. एवं बरार में कांग्रेस को 112 स्थानों में से 92, स्थान मिले। रविशंकर शुक्ला के प्रधान मंत्रित्व (तब मुख्यमंत्रियों को इसी नाम से जाना जाता था) में सी. पी. एवं बरार, प्रांत में सरकार बनी। डाॅ. साहब इस चुनाव में धरसींवा विधानसभा से विधायक चुने गये। कांग्रेस की अंतरिम सरकार में संसदीय सचिव के रूप में कार्य किया। तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री डाॅ. हसन के साथ, उन्होने स्वास्थ्य विभाग का भी काम सम्हाला। तत्त्कालीन मुख्यमंत्री रविशंकर शुक्ल से ”किसानों से प्रशासन द्वारा चंदा वसुली” के प्रकरण में मतभेद हो गया, और अपने पद से इस्तीफा दे दिया । 19 मई 1951 में आचार्य कृपलानी के नेतृत्व में बने ”किसान मजदूर प्रजा पार्टी” में शामिल हो गये। सन! 1952 का आम चुनाव हुआ, डाॅ. खूबचंद बघेल ”किसान मजदूर प्रजा पार्टी” से पुनः धरसींवा विधानसभा क्षेत्र के विधायक चुने गये, उन्होने कांग्रेस को 53.21 प्रतिशत मत प्राप्त कर हराया था। सन् 1952 में जयप्रर्काश नारायण के समाजवादी पार्टी एवं आचार्य कृपलानी के ”किसान मपदूर प्रजा पार्टी” को मिलाकर ”प्रजा सोशलिस्ट पार्टी” का गठन किया गया। सन् 1957 के आम चुनाव में ”प्रजा शोलिस्ट पार्टी” प्रसोपा (झोपड़ी छाप) के बैनर तले पुनः धरसींवा विधानसभा से निर्वाचित घोषित किये गये। सन् 1954 में ठाकुर प्यारेलाल सिंग के निधन के पश्चात छत्तीसगढ़ में समाजवादी आंदोलन एवं प्रसोपा का कमान डाॅ. खूबचंद बघेल के हाथों सौंपा गया।
राजनीति के महत्व को बताते हुये डाॅ. साहब ने सन 1965 की अपनी डायरी में लिखा है, कि – ”राजनीति को रचनात्मक कार्यकर्ता पाप समझते हैं, किन्तु आज राजनीति राष्ट्र की दिशा -निर्देश, नीति निर्धारण करती है। क्या इसे ऐसे लोगों के हाथ सौंपकर निश्चिंत हो जाया जाय जो जाने-अनजाने रचनात्मक कार्यों का नाशा कर देगें? ऐसी स्थिति में क्या मात्र निष्ठा से काम चल जायेगा ? अतः राजनीति को पाप समझना छोढ़ दें। राजनीति उतनी ही गंदी होती है, जितना हम उसे बनाते है। मैं सत्तालौलुप राजनीति का समर्थक नही पर आधारभूत राजनीति का समर्थक हुॅं, जिसका प्रभाव आम जनता के जीवन की जड़ों तक पहुंचता है। अतः चुनौती देने वाली समस्याओं को राजनीति का नाम देकर, उससे पिछा छुड़ाने का प्रयास सामाजिक कार्यकर्ता ना करें यही मेरी उनसे अपेक्षा है। ”
भारत के राजनैतिक परिदृष्य पर, इतिहास के पन्नों से सन् 1955 की डायरी में लिखते हैं – ”मुट्ठी भर लोगों की जगह ‘बहुजन समाज‘ का राज पहिले आदिम काल में सहज स्वभाविक रूप से स्वतंत्र था। ” सन् 1951 में कांग्रेस से त्यागपत्र देकर जब आचार्य कृपलानी के साथ ”किसान पजदुर प्रजा पार्टी” में आये तो पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र ने उन्हें धमकाते हुये कहा था – ”डाॅ. सोच लो तुम्हें मिटा दिया जायेगा। ” इसका जवाब डाॅ. साहब ने कुछ इस तरह दिया था- ”आप मुझसे मेरा सब कुछ छीन सकते हो, मेरी गरीबी नहीं छीन सकते। मेरी बूची टांडी के पसिया को नहीं छीन सकते।” आचार्य कृपलानी के साथ कांग्रेस त्यागने वाले छत्तीसगढ़ में ठाकुर प्यारेलाल सिंह (रायपुर), ज्वाला प्रसाद मिश्रा (अकलतरा) विश्वनाथ यादव, तामस्कर वकील (दुर्ग) आदि थे। ये सभी नेता अपने समय के प्रखर स्वतंत्रता सेनानी एवं गांधीवादी थे।
छुर्दखदान तहसील कार्यालय हटाये जाने के विरोध में प्रदर्शन कर रहे, निहत्थे लोगों पर शासन द्वारा गोली चलाई गई। जिसमें कुछ महिलायें भी शहीद हुई, अनेक घायल हुये। इस गोली चालन के विरूद्ध में उन्होने ठाकुर प्यारेलाल सिंह के साथ मिलकर प्रातव्यापी आंदोलन चलाया। इसी प्रकार लोहांडी गुड़ा जिला- बस्तर में आदिवासियों पर दिनांक 31/03/1961 मे हुये अत्याचार, गोली चालन का उन्होने प्रभावी ढंग से विरोध किया।
डाॅ. बघेल ने रायपुर का कुप्रसिद्ध तकाबी कांड, जिसमें किसानों को लूटा गया था, के विरूद्ध अपनी आवाज बुलंद की। तकाबी कांड में फंसे अधिकारियों को अंत में सजा मिली, सजा से बचने, संबंधित व्यक्तियों ने डाॅ. बघेल की अनुपस्थिति में, उनके घर डाका डलवाकर, कांड से संबंधित कई फाइलें गायब करवा ली थी।
बैतूल जिले के कुछ लोगों ने डाॅ. बघेल को ”सायना बांध” में हुए घपले की खबर दी, डाॅ. साहब ने वहां पहुंचकर घपले की पुरी फाइल बनाई। मुख्यमंत्री काटजू के पास चर्चा के लिय स्वम् गये। पूरी चर्चा के बाद कैलाश नाथ काटजू, मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश ने पूछा ”डाॅ. बघेल आखिर आप सायना गये क्यों थे ? क्या वहां आपकी कोई रिश्तेदारी है ?” डाॅ. बघेल बोल – डाॅ. काटजू आप ठीक-ठीक बताएॅं की आप जांच कराने तैयार हैं, कि नहीं ? अन्यथा मैं इस घपले को आमजनता तक ले जाऊंगा, और वह स्वम् निर्णय लेगी। एक उच्च पुलिस अधिकारी ने रायपुर के अपने कार्यकाल में किसी मामले की डाक्टर साहब द्वारा आलोचना किये जाने को लेकर इंदौर में उन पर मुकदमा चलाया। डाॅ. साहब इंदौर जाकर मुकद्मा लड़े और विजयी हुये।
डाॅ. कैलाशनाथ काटजू के मुख्यमंत्रित्व के दौरान सन् 1960-61 में विन्ध्यप्रदेश, मध्यभारत एवं छत्तीसगढ़ में अकाल पड़ा। विन्ध्य एवं मध्यभारत को गेहूॅ निर्यात की छूट और छत्तीसगढ़ के धाननिर्यात पर पाबंदी लगा दी गई। डाॅ. साहब ने मुख्यमंत्री से, छत्तीसगढ़ के किसानों के हित में प्रतिबंध हटाने की अपील की, मुख्यमंत्री नहीं माने। डाॅ. साहब ने इस तुगलकी, आदेश का उल्लंघन करते हुये, अपने साथियों के साथ ‘धान सत्याग्रह‘ आंदोलन चलाया। महाराष्ट्र-मध्यप्रदेश सीमा पर स्थिति बाघ नदीं से 1 बोरा धान को स्वयं नाव द्वारा निर्यात कर (म.प्र. से महाराष्ट्र ले जाकर) आंदोलन की शुरूवात की और जेल गये। इस आंदोलन में स्व.बृजलाल वर्मा, पूर्व केन्द्रीय मंत्री, हरिप्रेम बघेल पूर्व विधायक एवं अन्य साथीगण शामिल थे।
सन् 1962 मे विधाचरण शुक्ल के विरूद्ध ”महासमंुद लोक सभा” सीट से चुनाव लड़ा, जिसमें विधाचरण 2,500 मतों से विजयी हुये थे। इस लोकसभा चुनाव में (आमचुनाव) महासमुंद लोक सभा के अन्तर्गत आने वाले, सारंगढ़ विधान सभा से, वहां के राजा साहब ने चुनाव लड़ा। उनके विरूद्ध केवल प्रसोपा का एक प्रत्याशी ही था, जिसकी उम्मीद्वारी वापस लेने से, वे निर्विरोध निर्वाचित हो सकते थे। इसके लिये राजा साहब ने डाॅ. बघेल को 30,000/- रूपया (तीस हजार) घूस के रूप में देने की पेशकश की। सिद्धांत के पक्के डाॅ. बघेल देवभोग से सराईपाली तक विद्याचरण से आगे रहे पर सारंगढ़ में 12,000 मतों से पिछड़कर 2500 (ढाई हजार ) मतों से हार गये। डाॅ. बघेल ने विधाचरण के विरूद्ध चुनाव याचिका दायर की और विद्याचरण का निर्वाचन रद्द कर दिया गया।
”मांछी खोजे घाव अऊ राजा खोजे दांव” वाली काहवत चरितार्थ करने, पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र (जिसके विरूद्ध भी 1’962 के चुनाव जीतने में कदाचरण की याचिका न्यायालय में दायर कर दी गई थी।) ने कोचककर घाव बनाया एवं समाजवादी पार्टी के मुखिया डाॅ.बघेल को घेरा। इस षडयंत्र में विद्याचरण को भी शामिल किया गया, क्योंकि उनके विरूद्ध भी चुनाव याचिका थी, दुश्मन (डाॅ. बघेल) का दुश्मन (विद्याचरण) दोस्त बन गये। सिलयारी घानी संघ जो सहकारी क्षेत्र में था, की जांच (आडिट) करवाकर कुछ गलतियाॅं निकाली गई।
डाॅ. बघेल का इसमें कोई हाथ नहीं था, उन्हें तो राजनीति से ही फुर्सत नहीं थी। पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र ने डाॅ. बघेल को कहा, कि आपके द्वारा संचालित संसघ में पैसे की गड़बड़ी है और इससे आपके प्रतिष्ठा को गहरा आघात लग सकता है। आप कांग्रेस में आते हैं, तो इसे नजर अंदाज किया जा सकता है। डाॅ. बघेल ने सोचा जिस छत्तीसगढ़ की सेवा विरोघी पार्टी में रहकर वो नहीं कर नहीं पा रहे है, वह सत्ता के माध्यम से अच्छा हो पायेगा। प्रतिष्ठा भी बची रहेगी। डाॅ. बघेल ने कांग्रेस प्रवेश करना स्वीकार कर लिया। लेकिन कभी भी कांग्रेस में चैन से नहीं रह पाये। सन्1966 में तत्कालीन मुख्यमंत्री डी.पी. मिश्र थे, बस्तर में राजा प्रवीर चंद भंजदेव के कारण बस्तर के 12 विधान सभा सीटों में कांग्रेस की दाल नहीं गलने वाली थी। राजा प्रवीरचंद भंजदेव ने न केवल बस्तर जिला कांग्रेस अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दिया था। वरन कांग्रेस भी छोड़ दी। द्वारिका प्रसाद मिश्रा बस्तर के 12 सीट कांग्रेस की झोली में डालकर, इंदिरा गांधी को खुश करना चाहते थे। प्रवीर चंद भंजदेव एवं 300 आदिवासियों की पुलिस गोली चालन कर हत्या करवा दी गई। इस घटना का मार्मिक चित्रण डाॅ. बघेल ने लोगों के सामने रखा, आम जनता को इस काण्ड की बर्बरता का विवरण दिया। इस कांड से दुखी डाॅ. साहब ने कांग्रेस इस्तीफा दे दिया।
भिलाई स्टील प्लांट की स्थापना में जिन किसानों की जमीन अर्जित की गई, उनके परिवार से एक व्यक्ति को अनिवार्य रूप से कारखाने में रोजगार दिलवाने श्री तामस्कर जी के साथ मिलकर किसानों एवं मजदूरों का विशाल प्रदर्शन डाॅ. बघेल के नेतृत्व में किया गया। शासन ने स्थानीय लोगों को प्राथमिकता देना स्वीकार किया। हीराकुंड बांध निर्माण से जिन किसानो की जमीन, डुब में आ गई थी, उसके मुआवजे के लिये आंदोलन चलाया, इस आंदोलन में श्री रामकुमार अग्रवाल रायगढ़ ने साथ दिया। किसानों को उनका हक मिला।
1964 में जब ‘सी.पी.एवं बरार‘ प्रांत के प्रधनमंत्री (मुख्यमंत्री तब इसी नाम से जाने जाते थे। ) के चुनाव में बृजलाल बियानी भी एक उम्मीद्वार थे, पं. रविशंकर शुक्ला के विरूद्ध, बियानी को समर्थन देने के बदले डाॅ. बघेल को 3 लाख रूपये देने का प्रस्ताव गोपाल दास मेहता ने रखा। डाॅ. बघेल उसूल के पक्के, निष्ठावान राजनीतिज्ञ थे, यह प्रस्ताव ठुकराकर, पं. रविशंकर शुक्ल के लिये प्रधानमंत्री पद का रास्ता प्रशस्त किया। 1964 में स्वास्थ्य विभाग के सचिव आई. सी. एस. , मि. सिन्हा थे, डाॅ. हसन, स्वास्थ्य मंत्री (केबिनेट) थे। सचिव की लापरवाही से विधानसभा में डाक्टरों की नियुक्ति को लेकर प्रश्न उठने की नौबत आ गई। मि. सिन्हा को बुलाकर डाॅ. साहब ने खरी खोटि सुनाई, सिन्हा जी ने अपनी पत्नी के माध्यम से काजू किसमिस, अंगुर सेबफल से भरी टोकरी राजकुवर देवी (डाॅ. साहब की पत्नी) तक डाॅ. साहब की अनुपस्थिति में पहुंचवाई।
डाॅ. बघेल ने पत्नि से पूछा इसे कौन लाया ? तुरंत अपने चपरासी गोपाल के हाथ उस टोकरी को सिन्हा के घर वापस पहुंचवा दिया। गांधी जयंती के उपलक्ष्य में चंदा इकट्ठा करने नेवरा, लखनलाल मिश्र, भुजबल सिंह एवं जगन्नाथ बघेल के साथ गये। एक राइस मील के मालिक ने उनसे कहा, आप कोड़हा मध्यप्रदेश से बाहर भेजने का परमिट मुझे दिला दीजिये, मैं अकेला 7500/- (साढ़े सात हजार रूपये) चंदा देता हूॅ। डाॅ. बघेल ने इंकार कर दिया। घर-घर जाकर रूपये इकट्ठा कर लाये। गांधी जयंती सम्पन्न हुई।
डाॅ. बघेल ने पं. रविशंकर शुक्ला से मतभेद के कारण मंत्री मण्डल से इस्तीफा दिया था। कारण पं. जी के प्रधानमंत्री बनने की खुशी में, महासमुंद के सेठ नेमीचंद श्री श्रीमाल ने उन्ें चांदी से तोलने की योजना बनाई। इसे मूर्तरूप देने के लिये प्रशासन के माध्यम से आदिवासी क्षेत्र पिथौरा, सराइपाली, बसना, महासमंुद बागबाहरा के किसानों से चंदा जबरदस्ती वसूल किया जाने लगा। लोगों ने अपना खेती-बाड़ी गाय-बकरी-मुर्गी यहाॅ तक की घर के जेवर एवं बर्तन बेचकर चंदा चुकाया। इसकी तिखी प्रतिक्रिया हुई, कुछ आदिवासियों ने नागपुर (सी.पी. एवं बरार की राजधानी) जाकर डाॅ. बघेल को अपनी व्यथा कथा सुनाई। उन्हें परस्पर विश्वाश नहीं हुआ उन्होने प्रधानमंत्री पं. रविशंकर शुक्ल से मिलकर इस विषय में चर्चा की, पंडितजी ने कहा ”राजनीति में यह सब चलता है।
हालांकी मैने शासकीय कर्मचारियों को ऐसा कोई आदेश नहीं दिया है, इसलिये रोक लगाने के आदेश की जरूरत नहीं है। ” डाॅ. बघेल ने छत्तीसगढ़ के इसी शोषण, लूट के विरूद्ध अपना इस्तीफा दिया था, इससे व्यक्ति, दुखी होकर ।
ग्राम – मौहागांव सिलयारी त. व जि. रायपुर के एक अनुसूचित जाति के किसान को सरकार द्वारा पंप लगाने के लिये 6,000/- (छः हजार) रूपये मंजूर किया गया। तत्कालीन तहसीलदार ने उसे 4,000/- (चार हजार) रूपये ही देकर, बांकी अपने पास रख लिया, इसकी शिकायत उक्त किसान ने डाॅ. साहब से की। वे उस समय धरसींवा के विधायक थे। तहसीलदार के विरूद्ध मामला दायर किया, रायपुर के वकील डाॅ. बघेल के तरफ से खड़ा होने तैयार नहीं हुये, दुर्ग से तामस्कर वकील को लाकर भ्रष्टाचार का मुकदमा जीते। तहसीलदार को बर्खास्त कर दिया गया।
डाॅ. बघेल का जीवन, ऐसे कितनों ही घटनाओं से भरा पड़ा है। उन्होने अपने 39 वर्ष (सन् 1931 से 1969) के राजनैतिक जीवन में जीवन पर्यंत दलित-शोषित, मजदूर, किसानों एवं गरीब जनता की आवाज बुलंद की और बदले में कभी भी कुछ पाने की कामना नहीं की। खासकर आर्थिक लाभ कभी नहीं उठाया। प्रजातंत्र की महत्ता को आमजनता तक पहुंचाने सतत संघर्ष किया ।
डाॅ. खूबचंद बघेल का छत्तीसगढ़ राज्य आंदोलन
वैसे सप्रे स्कुल में सन् 1946 में आयोजित ‘प्रदेश कांग्रेस कमेटी‘ की बैठक में तामस्कर वी.वाय. ने, छत्तीसगढ़ को अलग राज्य का दर्जा दिलाने की बात रखी थी। लेकिन ”प्रदेश कांग्रेस कमेटी” में, जिसके अध्यक्ष पं. रविशंकर शुक्ला थे, वी.वाय. तामस्कर के प्रस्ताव को अनसुनी कर दी।
डाॅ. बघेल के मन में पृथक छत्तीसगढ़ राज्य के मांग ने, तब घर कर लिया, जब सन् 1948 में उन्होने रविशंकर शुक्ल मंत्री मंडल से , पिर्थारा बसना-सरायपाली के पिछड़े, आदिवासियों से जबरन चंदा वसुल की गई थी। डाॅ. बघेल इस प्रकरण से इतने द्रवित हुये, कि उन्होनें शुक्ल मंत्रीमंडल से ही इस्तीफा दे दिया। उन्होनें एक लेख लिखा, र्शीर्षक था – ”क्षुब्ध -छत्तीसगढ़” इस लेख से रायपुर-बिलासपुर और दुर्ग ये तीन जिले और हाल के विलीनीकरण से शामिल हुये, 14 राजवाड़े यही छत्तीसगढ़ का इलाका है। सत्ता के मद में माते लोगों को भुलावे में डालने के लिये, छत्तीसगढ़ के परमपुनीत जागरण के कोलाहल को पाकिस्तानी नारा कहकर दफना देना चाहते हैं। वे कहते है ”छत्तीसगढ़ीया चेतना की आवाज लगाने वाले देश के दुश्मन है। उनके साथ शासन रियायत ना करेगा। उन्हें कुचल देगा। देखो खबरदार कोई साथ मत देना, नही ंतो आफत मोल लोगे।”
छत्तीसगढ़ के हित में जो अपना हित समझते है, वे हमारे भाई है। जो छत्तीसगढ़ का राजनैतिक, समाजिक, आर्थिक एवं अन्य तरीकों से शोषण करना चाहते है, हमारे प्रेम के पात्र नहीं हो सकते। क्या यह विचार देशद्रोह पूर्ण है ? यदि हो, तो हम अपना बचाव नहीं करना चाहते। यदि हमारे विचार में भुल हो तो, हमें प्रेम से समझाया जाय। हम वायदा करते हैं, कि समझ लेने पर हम अपनी भुल सुधार लेगें। परंतु यदि धमकी के बल पर हमें दबाने की कोशिश की गई, तो हमारा हृदय स्वीकार नहीं कर सकेगा।
डाॅ. रामलाला कश्यप जी (पूर्व कुलपति पं.र.वि.वि. रायपुर) ने जब वे जबलपुर कृषि महाविधालय में अध्ययनरत थे, तो डाॅ. बघेल से पूछा – आप छत्तीसगढ़ी आंदोलन के प्रेणता माने जाते हैं, तो आपके छत्तीसगढि़या की परिभाषा क्या है ? डाॅ. बघेल ने उत्तर दिया ”जो छत्तीसगढ़ के हित में अपना हित समझता है। छत्तीसगढ़ के मान- सम्मान को अपना मान – सम्मान समझता है और छत्तीसगढ़ के अपमान को अपना अपमान समझता है, वह छत्तीसगढ़ी है। चाहे वह किसी भी धर्म, भाषा, प्रांत जाति का क्यों न हो।”
ठाकुर प्यारेलाल सिंह द्वारा सम्पादित, प्रकाशित अर्ध सप्ताहिक पत्र ”राष्ट्र बंधु” में डाॅ. बघेल के लेख प्रमुखता से प्रकाश्ज्ञित होते थे। अन्होने आचार्य कृपलानी के लेखों का, अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद, भी किया। बालौद की एक सभा में डाॅ. साहब ने कहा था- ”आज प्रत्येक छत्तीसगढि़या समझ रहा है, कि आज प्रजातांत्रिक राज्य हो गया है, किन्तु असली स्वराज तो कोषों दूर है।” वे मानते थे कि छत्तीसगढ़ राज्य के असली शोषक एवं शोषित कभी एक साथ नहीं रह सकते। शोषण, अन्याय और दमन जहां है, वहाॅं स्वराज्य हो नहीं सकता, यह उनकी निश्चित धारणा थी। उनका तो बस एक ही लक्ष्य था – ”छत्तीसगढ़ के सोये स्वााभिमान को जगाना उसके गौरव गरिमा को उजागर करना उसे शोषण, अन्याय और दमन से मुक्त करना।”
डॉ. खूबचंद बघेल की रचना:
नाटक :
- ऊँच-नींच: छुआछूत और जातिप्रथा को कम करने के लिए इस नाटक को लिखकर मंचन किया गया।
- करम-छंडहा: यह नाटक आम आदमी की गाथा और बेबसी को दर्शाता है।
- जनरैल सिंह: छत्तीसगढ़ के दब्बूपन को दूर करने का रास्ता बताया गया है।
- भारतमाता: 1962 में भारत चीन युद्ध में इसे लिखकर मंचन कराया गया तथा चंदा इकठ्ठा कर भारत सरकार के पास भिजवाया गया।
निधन:
छत्तीसगढ़ राज्य के प्रथम स्वप्न दृष्टा डॉ. खूबचंद बघेल (Dr. Khubchand Baghel) हमेशा से छत्तीसगढ़ के विकास और छत्तीसगढ़ को एक अलग पहचान दिलाने के लिए कार्य किया, वे हमेशा छत्तीसगढ़ के दब्बूपन को दूर करने के लिए अनेक प्रयास किये,वे हमेशा यही चाहते थे की छत्तीसगढ़ को लोग क्यों ऐसे हीन भावना से देखते है हमेशा इससे सौतेला व्यावहार क्यों करते हैं बस इन्ही बातों की चिंता उन्हें सताते रहती थी। जातिगत भेदभाव, कुरीतियों को मिटाने वाले इस महान व्यक्ति का निधन संसद के शीतकालीन सत्र के लिए भाग लेने दिल्ली गए हुए थे वहाँ दिल का दौरा पड़ने से उनकी आकस्मिक निधन 22 फरवरी 1969 को हो गया।