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कोण्डागांव जिला Kondagaon District
Kondagaon District के अतीत में प्रचलित है, कि इसका प्राचीन नाम कोण्डानार था। बताया जाता है कि मरार लोग गोलेड गाड़ी में जा रहे थे, तब कोण्डागांव के वर्तमान गांधी चौक के पास पुराने नारायणपुर रोड से आते हुए कंद की लताओं में गाड़ी फंस गयी। उन्हे मजबूरी में रात को वहीं विश्राम करना पड़ा। बताया जाता है कि उनके प्रमुख को स्वप्न आया। स्वप्न में देवी ने उन्हें यहीं बसने का निर्देष दिया। उन्होंने उस स्थान की भूमि को अत्यंत उपजाऊ देखकर देवी के निर्देशानुसार यहीं बसना उचित समझा। उस समय इसे कान्दानार (कंद की लता आधार पर) प्रचलित किया गया, जो कालान्तर कोण्डानार बन गया।
Kondagaon Village List
इसी बीच बस्तर रियासत के एक अधिकारी ने हनुमान मंदिर में वरिष्ठ जनों की एक बैठक में इसे कोण्डानार के स्थान पर कोण्डागांव रखना ज्यादा उचित बताया। उस समय का पुराना मार्ग पुराना नारायणपुर मार्ग ही था। अत: मरारों के मुख्य परिवारों की बसाहट उसी मार्ग के दोनों ओर हुई। यही पुराना कोण्डागांव था।सन 1905 में केशकाल घाटी के निर्माण के बाद मुख्य सड़क बनी, जो गांधी चौक के पास पुराने नारायणपुर मार्ग से मिलती है। नया मार्ग बनने पर उसके दोनों ओर नई बसाहट होने लगी। रोजगारी पारा नए मार्ग के दोनों ओर बसा। केशकाल घाटी की सड़क का निर्माण होने के बाद केशकाल का क्षेत्र राठौर परिवार को मालगुजारी में दिया गया। वह परिवार तथा इनसे संबंधित लोग बाद में कोण्डागांव मुख्य मार्ग पर बसे।
मुख्य सड़क धमतरी से जगदलपुर को जाती थी। इस प्रकार कोण्डागांव की मुख्य सड़क बस्तर की राजधानी जगदलपुर से जुड़ गयी । 1980 के दशक में इसे राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक 43 घोषित किया गया है। अभी हाल मे 2010 में यही राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक 30 घोषित किया गया है।रियासत काल में कोण्डागांव, बडेडोंगर तहसील के अंतर्गत था तथा उसका पुलिस स्टेशन भी बडेडोंगर में था। बाद में तहसील मुख्यालय कोण्डागांव 1943 में आया।
यहां बसने वाली सबसे पुराने मरार,कोष्टा तथा अनुसूचित जाति, जनजाति में गाण्डा, घसिया, हल्बा आदि थे। कोण्डागांव की बसाहट अच्छी होने पर यहां 1930 के आसपास प्राथमिक षाला बनी और कुछ वर्शो बाद एंग्लो वर्नाक्यूलर मिडिल स्कूल की स्थापना हुई। सन 1953 में यहां मैटि्क की परीक्षा केन्द्र भी बन गया।1955 में पूर्वी बंगाल के व्यकितयों की बसाहट के लिए प्रशासनिक भवन तथा कर्मचारियों के आवास बनना शुरू हुआ। केन्द्रीय पुनर्वास मंत्रालय के अन्तर्गत दण्डाकारण्य प्रोजेक्ट बना जो उड़ीसा से बस्तर के इस क्षेत्र तक विस्तृत था। 1958 में यहां बिजली आई जिसाका उदघाटन हाई स्कूल के प्राचार्य ने किया था।
1965 मे ही कोण्डागांव राजस्व अनुविभाग घोषित किया गया।कोण्डागांव रियासत काल में पूर्व में हटिया फिर शामपुर तथा बाद में सोनाबाल परगना के अंतर्गत लिया जाता था। कोण्डागांव का विकास क्रमश: तेजी से हुआ और कस्बे से शहर बना। पहले यह आदिम जाति पंचायत के अंतर्गत था तत्पष्चात 1975 में नगरपालिका परिषद् की स्थापना हुईं , नगर में विधाओं में प्रगति आई है जिससे बेलमेटल शिल्प , लौह शिल्प , प्रस्तर शिल्प , मृतिका शिल्प लोक कला चित्र, काश्ठ, बांस, कौड़ी शिल्प और बुनकर शिल्प का यथेश्ट विकास हुआ।
बेलमेटल शिल्प से बस्तर को विश्व स्तर पर ख्याति दिलाने का श्रेय कोण्डागांव के कलाकारों को जाता है। सांस्कृतिक क्षेत्र में सांस्कृतिक संस्थाएं स्थापित हुई एंव साहित्य संगीत, अभिनय कला के विकास का पथ प्रशस्त हुआ। इसके अतिरिक्त शासन की विभिन्न योजनाओं को भी इसके माध्यम से प्रचार मिला। वर्श 1984 में शासन द्वारा एक महाविधालय की स्थापना की गई ।
15 अगस्त 2011 को छत्तीसगढ़ के माननीय मुख्यमंत्री जी ने इसके विकास को देखते हुए इसे राजस्व जिला घोषित किया। निश्चय ही जिला निर्माण से कोण्डागांव जिला छत्तीसगढ़ का एक आर्दश जिला बनेगा एवं ख्याति अर्जित करेगा। ( उक्त इतिहास सर्व श्री टी.एस. ठाकुर,सुरेन्द्र रावल, उजियार देवांगन, हरिहर देवांगन, महेष पाण्डे, कोतवाल सुकालू, गोपाल पटेल एवं खेम वैश्णव से प्राप्त जानकारी के अनुसार लिया गया है।)
संस्कृति एवं लोकप्रथाएं
- घोटुल :– यह प्रथा गोंड़ जनजाति के युवक-युवतियों का सामाजिक सांगठनिक स्वरूप है, जहां युवा भावी जीवन की शिक्षा प्राप्त करत है। इन युवाओं को स्थानीय बोली में चेलिक-मोटयारी कहते है। इस प्रथा को गोंड़ जनजाति में व्यापक शिक्षण स्वरूप में देखा जाता है। इसमें नृत्य, गान जैसे विभिन्न क्रियाकलाप के माध्याम से बहुमुखी विकास दी जाती है।
- घोटुल की प्रषासनिक व्यवस्था काफी कठोर रही है। इसके उल्लंघन पर दंड का प्रावधान रहा है जिससे ग्रामीणों को भी कोईआपतित नहीं होती थी। इस संगठन द्वारा सामाजिक संरचना जैसे जन्म से लेकर मृत्यु तक में व्यवस्था में नि:शुल्क सहयोग दिया जाता है इसके एवज में गांव वाले इन्हे भोजन आदि करा कर सम्मान करते है। अब यह प्रथा धीरे- धीरे विलुप्तप्राय हो रही हैं।
- गोन्चा पर्व (भगवान जगन्नाथ की पूजा) :– आशाढ़ के महिने में बस्तर के महाराजा पुरूशोत्तम देव अपने कुछ लोगों के साथ पैदल ही जगन्नाथ पुरी के लिये चल पडे़। पक्ष द्वितीया के दिन भगवान जगन्नाथ का रथ खीचा ही जा रहा थ तभी रथ रूक गया व सभी अचरज से भर गये। पुरी-मुखिया गजपति राजा ने कहा कि जरूर अभी जगन्नाथ का कोई भक्त यहां नहीं पहुंचा है।
- तभी बस्तर के महाराजा पुरूषोत्तम देव वहां पहुंचे और रथ चल पड़ा। इससे लोगों ने भगवान और भक्त राजा पुरूषोत्तम देव की जय-जयकार की ।तब से बस्तर महाराज ने जगदलपुर मं गोन्चा पर्र्व और दषहरे के समय रथ चलाने की प्रथा षुरू की। इन्ही तिथियों मे जगदलपुर, नारायणपुर के साथ-साथ कोण्डागांव और पलारी में भी यह पर्व मनाया जाता है। भगवान जगन्नाथ मंदिर में जगन्नाथ, बलराम, सुभद्रा की पूजा की जाती है।
- इस दिन विषेश कर बांस की तुपकियों में ‘पेंग फल (मालकांगिनी) भरकर एक-दूसरे पर ‘पेंगो की की बरसात उत्साह पूर्वक करते है। यह प्रथा आज भी प्रचलित है। पहले श्री गोन्चा तथा सात दिन बाद बाहड़ा गोन्चा होता है। पलारी में रथ यात्रा में भगवान जगन्नाथ, बलराम, सुभद्रा के स्थानीय देवी-देवता रथ पर बैठते हैं।
- तभी बस्तर के महाराजा पुरूषोत्तम देव वहां पहुंचे और रथ चल पड़ा। इससे लोगों ने भगवान और भक्त राजा पुरूषोत्तम देव की जय-जयकार की ।तब से बस्तर महाराज ने जगदलपुर मं गोन्चा पर्र्व और दषहरे के समय रथ चलाने की प्रथा षुरू की। इन्ही तिथियों मे जगदलपुर, नारायणपुर के साथ-साथ कोण्डागांव और पलारी में भी यह पर्व मनाया जाता है। भगवान जगन्नाथ मंदिर में जगन्नाथ, बलराम, सुभद्रा की पूजा की जाती है।
- कोण्डगांव मड़ई:– फागुन पूर्णिमा के पहले मंगलवार केा माता पहुंचानी (जातरा) का आयोजन होता है, जिसमें गांव के प्रमुख पटेल,कोटवार एकत्रित होकर देवी-देवताओं का आहवान कर उन्हें मेला हेतु आमंत्रित करते है तथा देवताओं से मांग की जाती है कि आने वाले साल भर खेती कार्य, जनवार इत्यादि में किसी प्रकार का प्रकोप बीमारी जैस विघ्न ना आये।
- इसके अगले मंगलवार को देवी-देवताओें का आगमन होता है तथा ग्राम देवी के गुड़ी मंदिर में एकत्रित होकर मेला परिसर की परिक्रमा कर मेले के षुभारंभ की घोशणा की जाती है। इस मेले में परंपरा रही है कि बस्तर राजा पुरूषोत्तम देव के प्रतिनिधि तौर पर तहसील प्रमुख होने के नाते तहसीलदार को बकायदा सम्मान के साथ परघा कर मेले में ले जाते है।
- तहसीलदार को हजारी फूल का हार पहनाते है। षीतला माता, मौली मंदिर में पूजा तथा मेले की परिक्रमा होती है। यह प्रथा आज भी प्रचलित है
- इसके अगले मंगलवार को देवी-देवताओें का आगमन होता है तथा ग्राम देवी के गुड़ी मंदिर में एकत्रित होकर मेला परिसर की परिक्रमा कर मेले के षुभारंभ की घोशणा की जाती है। इस मेले में परंपरा रही है कि बस्तर राजा पुरूषोत्तम देव के प्रतिनिधि तौर पर तहसील प्रमुख होने के नाते तहसीलदार को बकायदा सम्मान के साथ परघा कर मेले में ले जाते है।
जिला कोंडागांव का पुरावैभव
- कोपाबेड़ा स्थित शिव मंदिर :- कोपाबेड़ा सिथत शिव मंदिर का विलक्षण मंदिर , कोण्डागंव से 4.5 कि.मी. दूर नांरगी नदी के पास सिथत है। यहां पहुंचने के लिए साल के घने वृक्षों के मध्य से होकर गुरजना पड़ता है।प्राचीन दण्डाकारण्य का यह क्षेत्र रामयण कालीन बाणसुर का इलाका माना जाता है। सामान्य तौर पर अब पूरे क्षेत्र में षाक्य व षैव है। षैव से संबंधित जितने भी इस अंचल में मंदिर है, उन मंदिरों में स्थापित षिव लिंगों के संदर्भ मे रोचक तथ्य देखने का मिलता है।
- यह रोचक तथ्य है शिवलिंगों का स्वप्नमिथक से जुड़ा होना । कोपाबेड़ा का मंदिर भी इससे अछुता नहीं है। जनश्रुति है कि भक्त जन को स्वप्न में इस शिवलिंग के दर्शन हुए। स्वप्न के आधार पर ही उन्होंनें पास के जंगल में इसे स्थापित किया। यह घटना 1950-51 . के आसपास की है। प्रत्येक शिवरात्रि को यहां मंला लगता है। पूजन की परंपरा यह कि गांव के देवस्थनल जो कि नदी के किनारे राजाराव के नाम से जाना जाता है उसकी पूजा सर्वप्रथम की जाती है। कहा जाता है कि इस षिवलिंग के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि जब यह प्राप्त हुआ था, तब यह काफी छोटा था किन्तु वर्तमान में इसका आकार काफी बड़ा हो गया है।
- सावन के महीने में नागसर्प के जोड़े की यहां मौजूदगी भी आष्चर्य कर देने वाली घटना है ऐसी मान्यता है।
- यह रोचक तथ्य है शिवलिंगों का स्वप्नमिथक से जुड़ा होना । कोपाबेड़ा का मंदिर भी इससे अछुता नहीं है। जनश्रुति है कि भक्त जन को स्वप्न में इस शिवलिंग के दर्शन हुए। स्वप्न के आधार पर ही उन्होंनें पास के जंगल में इसे स्थापित किया। यह घटना 1950-51 . के आसपास की है। प्रत्येक शिवरात्रि को यहां मंला लगता है। पूजन की परंपरा यह कि गांव के देवस्थनल जो कि नदी के किनारे राजाराव के नाम से जाना जाता है उसकी पूजा सर्वप्रथम की जाती है। कहा जाता है कि इस षिवलिंग के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि जब यह प्राप्त हुआ था, तब यह काफी छोटा था किन्तु वर्तमान में इसका आकार काफी बड़ा हो गया है।
- मुलमुला:- तहसील कोण्डागांव षामपुर माकड़ी को जाने वाले मार्ग पर चिपावण्ड ग्राम से लगभग 5 किमी की दूरी पर ग्राम मुलमुला सिथत है। इस गांव से लगभग 3-4 कि.मी. अंदर सुरक्षित वन क्षेत्र में मुलमुला एवं काकरावेड़ा जंगल मूसर देव नामक स्थल है। वर्तमान में यहां कई प्राचीन टीले हैं इन टीलों के पास ही एक शिवलिंग है। चूंकि यह शिवलिंग लम्बाई में मूसर की आकृति का है जिसके कारण स्थानीय लोक इसे मूसर देव के नाम से जानते है।
- टीलों का विवरण है: टीला क्रमांक 01 :- इस टीले का आकर 12×12×2 मी. है। टीले पर एक षिवलिंग है जो दो भागों में विभक्त है जिसका माप 135×20×19 से.मी. है एवं जलहरी 97×40×8 से.मी. है। टीला क्रमांक 02 इस टीले का आकार 18×20×3 मी. है। यह टीला प्रथम टीले से लगभग 50 मी. की दूरी पर दक्षिण दिषा में सिथत है यहां पर बिखरी पड़ी ईटो की माप 34×17×7 से.मी. है। इस टीले की भी अज्ञात लोगों द्वारा 4×2×2 की परिधि में खुदाई की जा चुकी हैै।
- खुदाई से ईटो से निर्मित दीवारें स्पश्ट दिखाई दे रही है। इसके अतिरिक्त कोण्डागांव जिले में अनेक स्थल है जिनका पुरातातिवक व धार्मिक महत्व है।
- टीलों का विवरण है: टीला क्रमांक 01 :- इस टीले का आकर 12×12×2 मी. है। टीले पर एक षिवलिंग है जो दो भागों में विभक्त है जिसका माप 135×20×19 से.मी. है एवं जलहरी 97×40×8 से.मी. है। टीला क्रमांक 02 इस टीले का आकार 18×20×3 मी. है। यह टीला प्रथम टीले से लगभग 50 मी. की दूरी पर दक्षिण दिषा में सिथत है यहां पर बिखरी पड़ी ईटो की माप 34×17×7 से.मी. है। इस टीले की भी अज्ञात लोगों द्वारा 4×2×2 की परिधि में खुदाई की जा चुकी हैै।
- आराध्य माँ दंतेष्वरी – बडे़डोंगर :- फरसगांव से मात्र 16 कि.मी. दूरी पर रचा बसा चारों ओर पहाडि़यों से घिरा यह क्षेत्र बडे़डोंगर अपने इतिहास का बखान कर रहा है। आज इस क्षेत्र की चर्चा सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ राज्य में है। कहावत है, कि बस्तर की आराध्य देवी मां दंतेष्वरी का निवास स्थान प्रमुख रूप से मंदिर दंतेवाड़ा है।
- पहले कभी बस्तर की राजधानी बडे़डोंगर में माई जी का प्रमुख पर्व दषहरे का संचालन इसी मंदिर से होता था। कथा प्रचलित है कि महिशासुर नामक दैत्य का संग्राम मां दंतेष्वरी से इसी स्थल पर हुआ था। महिशासुर उस रणभूमि में कोटि-कोटि सहस्त्र रथ हाथियों एवं घोड़ों से घिरा हुआ था। देवी ने अस्त्र षस्त्रों काी वर्शा कर उनके सारे उपाय विफल किए।
- बडे़डोंगर में पुराने समय में 147 तालाब पाये गये थे जो इसे विषेश तौर पर तालाबों की पवित्र नगरी के नाम से विख्यात करते है।
- पहले कभी बस्तर की राजधानी बडे़डोंगर में माई जी का प्रमुख पर्व दषहरे का संचालन इसी मंदिर से होता था। कथा प्रचलित है कि महिशासुर नामक दैत्य का संग्राम मां दंतेष्वरी से इसी स्थल पर हुआ था। महिशासुर उस रणभूमि में कोटि-कोटि सहस्त्र रथ हाथियों एवं घोड़ों से घिरा हुआ था। देवी ने अस्त्र षस्त्रों काी वर्शा कर उनके सारे उपाय विफल किए।
- आलोर :- ग्राम पंचायत आलोर जनपंद पंचायत फरसगांव के अंतर्गत है। पंचायत की दांयी दिशा में अत्यंत ही मनोरम पर्वत श्रृंखला है। इस पर्वत श्रृंखला के बीचोंबीच धरातल से 100 मी. की ऊंचाई पर प्राचीनकाल की मां लिंगेष्वरी देवी की प्रतिमा विधमान है। जनश्रुति अनुसार मंदिर सातवीं शताब्दी का होना बतया जाता जा रहा है।
- इस मंदिर के प्रांगण में प्राचीन गुफाएं सिथत है। प्राचीन मान्यता के अनुसार वर्श में एक बार पितृमोक्ष अमावस्या माह के प्रथम बुधवार को श्रद्धालुओं के दर्षन हेतु पाशाण कपाट खोला जाता है। सूर्योदय के साथ ही दर्षन प्रारंभ होकर सूर्यास्त तक मां की प्रतिमा का दर्षन कर श्रद्धालुगण हर्श विभोर होते है।
- सुरम्य घाटी केशकाल की :- कोण्डागांव जिले की केशकाल तहसील में सुरम्य एवं मनोहरी केशकाल घाटी राष्ट्रीय राजमार्ग 30 पर कोण्डागांव – कांकेर के मध्य सिथत है। केषकाल घाटी घने वन क्षेत्र, पहाडि़यों तथा खूबसूरत घुमावदार मोड़ों के लिए प्रसिद्ध है। इसे तेलिन घाटी के नाम से भी जाना जाता है।
- इस घाटी के मध्य से गुजरने वाला 4 कि.मी. का राजमार्ग तथा इस पर सिथत 12 घुमावदार मोड़ पथिकों के मन में उत्साह एवं रोमांच भर देते है। मार्ग के किनारे तेलिन माता का मंदिर सिथत है एवं कुछ दूर भंगाराम मांई जो न्याय की देवी मानी जाती हैं उनका पवित्र स्थल स्थित है। तेलिन सती मां मंदिर में यात्री रूककर माता का दर्शन तथा क्षणिक विश्राम कर अपने गंतव्य की ओर प्रस्थान करत है।
- टाटामारी :- धन – धान्य की अधिश्ठात्री शक्ति -स्वरूपा माता महालक्ष्मी शक्ति पीठ छत्तीसगढ़ टाटामारी सुरडोंगर केषकाल में आदिमकाल से पौराणिक मान्यताओें पर अखण्ड ऋषि के तपोवन पर स्थापित है। बारह भंवर केशकाल घाटी के ऊपरी पठार पर पिछले कई वर्शों से दीपावली लक्ष्मी पूजा के दिन विधि-विधान से श्रद्धालुजन पूजा अर्चना सम्पन्न करते आ रहें है।
- सुरडोंगर तालाब भंगाराम माई मंदिर होते टाटामारी ऊपरी पहाड़ी पठार पर महालक्ष्मी शक्ति पीठ स्थल तक माता भाई बहन श्रद्धा भकित से पहुंचते हैं। प्राकृतिक सौंदर्य से आच्छादित स्थल, मनोरम छटा, सौंदर्यमयी अनुपम स्थल का दर्षन करते हैं। ऐतिहासिक धरोहर स्थल टाटामारी के पठार कही डेढ सौ एकड़ जमीन पर अनुपम ऊंची चोटियों का विहंगम दृष्य देखते बनता है। या स्थल नैसर्गिक रूप से मनोहरी है।
- ऐतिहासिक- धार्मिक स्थल गढ़ धनोरा :- गढ़ धनोरा ऐतिहासिक-धार्मिक स्थल नवगठित कोंडागांव जिले के केशकाल तहसील में स्थित है,यह कोण्डागांव जिले के केशकाल तहसील में स्थित है, यह कोण्डगांव-केशकालमुख्य मार्ग पर केशकाल से 2 कि.मी. पूर्व बायें ओर 3 किमी की दूरी पर सिथत है। धनोरा को कर्ण की राजधानी कहा जाता है। गढ़ धनोरा में 5-6 वीं षदी के प्राचीन मंदिर, विश्णु एंव अन्य मूर्तियां व बावड़ी प्राप्त हुई है। यहां केशकाल टीलों की खुदाई पर अनेक शिव मंदिरों मिले है।
- यहां स्थित एक टीले पर कई शिवलिंग है, यह गोबरहीन के नाम से प्रसिद्ध है। यहां महाशिवरात्रि के अवसर पर विशाल मेला भरता है। इसी तरहकेशकाल की पवित्र पुरातातिवक भूमि में अनेक स्थल ऐसे हैं जो न केवल प्राचीन इतिहास के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है बलिक श्रद्धा एवं आस्था के अदभुत केंद्र है। जिनमें नारना मे अदभुत शिवलिंग तथा पिपरा के जोड़ा शिवलिंग की बड़ी मान्यता है।
- भोंगापाल :- भोंगापाल कोण्डागांव जिले के फरसगांव तहसील के बडे़डोंगर क्षेत्र में भोंगापाल गांव सिथत है। भोंगापाल, बंडापाल, मिसरी तथा बड़गई ग्रामों के मध्य बौद्धकालीन ऐतिहासिक टीले एवं अवषेश मौजुद हैं। ये ऐतिहासिक टीले एवं अवषेश मौर्य युगीन तथा गुप्तकालीन हैं।
- इतिहासकारों का अनुमान है कि यह स्थल प्राचीन काल में दक्षिणी राज्यों को जोड़ने वाले मार्ग पर सिथत है। भोंगापाल में ईटों से निर्मित विषाल चैत्य मंदिर है, यह चैत्य बौद्ध भिक्षुओं के धर्म प्रचार- प्रसार एवं निवास का प्रमुख केन्द्र था। इसके समीप एक ध्वंस मंदिर के पास सप्तमातृकाओंं की प्रतिमा है, जिसमें एक ही षिला पर वैश्णवी, कौमारी, इंद्राणी,माहेष्वरी, वाराही, चामुण्डा तथा नरसिंही की प्रतिमा निर्मित है।
- जटायु शिला जटायु षिला फरसगांव के समीप कोण्डगांव फरसगांव मुख्य मार्ग से पषिचम दिषा में 3 किमी की दूरी पर सिथत है। यहां पहाड़ी के ऊपर बड़ी-बड़ी षिलाएं है। षिलाओं तथा वाच टावर से दूर-दूर तक मनोहारी प्राकृतिक दृष्य दिखायी देते हैं। कहा जाता है कि इसी स्थान पर रामायण काल में सीता जी के हरण के दौरान रावण एवं जटायु के मध्य संघर्श हुआ था।
- शैल चित्र:- इनका पाया जाना कोण्डागांव जिले को एक विषिश्ट पहचान देता है। ये षैल चित्र लिंगदरहा, लहू हाता, लयाह मटटा, मुत्ते खड़का, सिंगार हुर में पाए गए हैं। जो व्यापक षोध का विशय हो सकते हैं।